-सुशील उपाध्याय
शब्दों की राजनीतिक, सामाजिक और कानूनी हैसियत भी होती है। बदलते समय के साथ कई शब्द सामाजिक तौर पर स्वीकार्य नहीं रह पाते और कई शब्दों की राजनीतिक, सामाजिक तथा कानूनी स्थिति में बदलाव आ जाता है। वर्ष, 2021 के आरंभ में इंग्लैंड की संसद में एक शब्द को अंग्रेजी भाषा से निकालने का प्रस्ताव रखा गया। यह प्रस्ताव खुद इंग्लैंड के प्रधानमंत्री की तरफ से रखा गया और पूरी संसद ने इस पर सहमति जताई। यह शब्द है ‘बामी’। इसका विस्तार है- ब्लैक एंड एशियन माइनॉरिटी एथेनिक। इस शब्द से नस्लवाद की बू आती थी। इसलिए अब इंग्लैंड में यह शब्द संसदीय और कानूनी प्रक्रियाओं में इस्तेमाल नहीं किया जाएगा।
हिंदी और अन्य उत्तर भारतीय भाषाओं के संदर्भ में देखें तो यहां भी कुछ जाति-सूचक शब्दों, जिसमें, चूहड़ा, चमार आदि का उल्लेख किया जा सकता है, का प्रयोग कानूनी तौर पर स्वीकार्य नहीं है। और यदि किसी व्यक्ति विशेष को लक्षित करके इन शब्दों का प्रयोग किया जाए तो कानूनी कार्यवाही भी हो सकती है। केवल भारत ही नहीं, बल्कि पाकिस्तान में भी ‘चूहड़ा’ शब्द असंसदीय है। वैसे, समाज में कथित रूप से छोटी मानी जाने वाली जातियों के लिए कई अपमानजनक संज्ञाओं का प्रयोग अब भी प्रचलन में है। हालांकि, उन्हें आधिकारिक तौर और गैरकानूनी घोषित नहीं किया गया है।
कुछ शब्द किसी देश की रणनीतिक और राजनयिक पोजीशन का निर्धारण भी करते हैं। भारत सरकार द्वारा बीते सात दशक से पाकिस्तानी नियंत्रण वाले कश्मीर के मामले में ‘अधिकृत’ शब्द का प्रयोग किया जाता रहा है, लेकिन अब भारत की राजनयिक शब्दावली में ‘अधिक्रांत’ शब्द ने ‘अधिकृत’ का स्थान ले लिया है। अब भारत सरकार द्वारा अपने आधिकारिक वक्तव्यों में पाकिस्तान द्वारा अधिकृत कश्मीर को ‘पाकिस्तान अधिक्रान्त’ कश्मीर कहा जा रहा है। इसका स्पष्ट अर्थ है कि पाकिस्तान ने भारत के उस हिस्से को हमला करके अपने नियंत्रण में लिया है।
इन दिनों ‘फ्री’ शब्द भी खूब चलन और चर्चा में रहा है। देश भर से मांग उठ रही है कि सभी लोगों का कोरोना से बचाव के लिए फ्री वैक्सीनेशन किया जाना चाहिए। यह शब्द उस वक्त नए सिरे से चर्चा में आया, जब कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर निशाना साधते हुए ‘फ्री’ शब्द के अर्थ बताए। उन्होंने अपने एक ट्वीट में लिखा, ‘फ्री एक विशेषण है और इसे क्रिया-विशेषण के रूप में भी प्रयोग किया जाता है। उन्होंने कहा कि लोगों से पैसा लिए बिना उन्हें टीका लगाए जाना है। इसलिए उम्मीद है कि देश के प्रधानमंत्री भी ‘फ्री’ शब्द का अर्थ समझते होंगे।
वैसे अंग्रेजी में ‘फ्री’ केवल निशुल्क के लिए प्रयोग नहीं किया जाता, बल्कि यह कुछ संदर्भों में आजादी और आजाद होने से भी जुड़ा हुआ है। यह मनुष्य और राष्ट्रों की गुलामी से मुक्ति का भी अर्थ वहन करता है। यह एक ऐसा शब्द है, जिसके दुनिया की सभी भाषाओं में एक से अधिक पर्यायवाची मिलते हैं। और मनुष्य के इतिहास में इस शब्द का आकर्षण बेहद गहरा रहा है।
हरेक दौर में तत्कालीन परिस्थितियों के अनुरूप भी शब्दों का चलन और उनके किसी खास अर्थ का बहुसंख्या में प्रयोग सामने आने लगता है। हाल के दिनों में एक मैसेज व्हाट्सएप यहां वहां घूम रहा है, जिसमें हास्य-भाव के साथ लिखा है कि कोरोना में हिंदी का प्रयोग काफी घट गया है। और इसका प्रमाण यह है कि अब लोगों की जुबान पर दहशत की जगह पैनिक शब्द आ गया है। स्टीम और इम्यूनिटी रोजमर्रा के शब्द हो गए हैं। पॉजिटिव शब्द ने तो नई ऊंचाई ग्रहण कर ली हैं। कोरोना के साथ जुड़ने के कारण यह शब्द डर का नया पर्याय बन गया है। सम्भवतः पहली बार नेगेटिव शब्द को इतना अधिक पसंद किया जा रहा है कि किसी के ‘नेगेटिव’ होने पर लोग बधाई दे रहे हैं और अपनी खुशी का इजहार कर रहे हैं।
इन दिनों सबसे ज्यादा प्रयोग किए जा रहे शब्दों में हैंडवाश, सैनिटाइजर और मास्क भी सम्मिलित हो गए हैं। आइसोलेशन, लॉकडाउन और क्वॉरेंटाइन जैसे शब्दों के लिए हिंदी के जो पर्यायवाची ढूंढे गए थे, अब कोई उन्हें पूछ भी नहीं रहा है। बस, एक ही ऐसा शब्द है, जिसने हिंदी की प्रतिष्ठा बचाई है। वह है, आयुर्वेद का ‘काढ़ा’। यह मैसेज बनाया गया तो मजाक में ही है, लेकिन यह भाषा के भीतर होने वाले परिस्थितिजन्य बदलावों की तरफ महत्वपूर्ण संकेत करता है। विगत डेढ़ वर्ष में केवल हिंदी में ही नहीं, बल्कि दुनिया की ज्यादातर भाषाओं में कोरोना महामारी से जुड़ी शब्दावली सहज रूप से स्वीकार कर ली गई है। और ये तमाम शब्द अब प्रत्येक भाषा के अपने शब्द हो गए लगते हैं।
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