देहरादून। दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान के निरंजनपुर स्थित आश्रम सभागार मंे रविवारीय साप्ताहिक सत्संग कार्यक्रम में प्रवचन करते हुए आशुतोष महाराज की शिष्या और देहरादून आश्रम की प्रचारिका साध्वी विदुषी सुभाषा भारती ने कहा कि भगवान अंध विश्वास नहीं, परम विश्वास का नाम है। संसार के तमाम रिश्तों-नातों, व्यापारिक सम्बन्धों, आर्थिक गतिविधियों और राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं के मध्य विश्वास ही है जो इन्हें एक दूसरे के साथ मज़बूती से जोड़े रखता है। जब साधारण सांसारिक चीज़ों में यह विश्वास इतना महत्वपूर्ण स्थान रखता है तो फिर सर्वोच्च सम्बन्ध ईश्वर के साथ भला इसकी डोर कमतर कैसे हो सकती है?
उन्होंने कहा कि विश्वास का आधार प्रत्यक्ष साक्षात्कार के अतिरिक्त और क्या हो सकता है? भगवान के मामले में यहां पर मनुष्य अपनी लाचारी प्रकट कर देता है कि भगवान का साक्षात्कार आखिर वह किस प्रकार से करे? ईश्वर से मिलन हुए बिना अपने भरोसे को किस प्रकार सुदृढ़ कर पाए? इन ज्वलंत प्रश्नों का सटीक समाधान महापुरूषों द्वारा रचित पावन शास्त्रों-ग्रन्थों के मध्य छुपा हुआ है। शास्त्र गहरे सागर के समान हैं इनमें जितना गहरा कोई उतरेगा उतने ही मोती-माणिक्य उसके हाथ लगेंगे। कहा गया- जिन खोज़ा तिन पाईयां, गहरे पानी पैठ। समस्त शास्त्रों की समवेत् स्वर में एक ही वाणी उभरकर सामने आती है कि भगवान को केवल तत्व से जाना जा सकता है, तात्विक दृष्टि को प्राप्त कर भगवान का साक्षात्कार, उनका दर्शन प्राप्त किया जा सकता है। इसके लिए मात्र एक ही कार्य अभीष्ट है कि किसी तत्वदर्शी पूर्ण सद्गुरू की शरण को प्राप्त कर लिया जाए। तत्वदर्शी गुरू ही अपने शरणागत् शिष्य के भीतर सनातन वैदिक तकनीक ‘ब्रह्म्ज्ञान’ के माध्यम से तात्विक दृष्टि को प्रकट करने की क्षमता रखते हैं। ईश्वर को देखना सम्भव है यदि कोई दिखाने वाला पूरा गुरू जीवन में आ जाए। ईश्वर का दर्शन ही उनके प्रति परम विश्वास का सशक्त आधार है, इस सशक्त आधार को अपनाए बिना इंसान सारी उम्र मात्र अंधविश्वास के दायरे में ही घूमता रहता है, चलता तो बहुत है, मगर पहुंचता कहीं नहीं।
जिस प्रकार जल और तेल को किसी पात्र में डालकर हिलाते रहने से दोनों एक साथ मिल गए से प्रतीत होते हैं, परन्तु हिलाना बंद कर देने पर जल और तेल दोनों अलग-थलग पड़ जाया करते हैं ठीक इसी प्रकार अंधविश्वास में फंसे व्यक्ति का भगवान के प्रति विश्वास और भक्ति हुआ करते हैं। महापुरूषों का एक ही कथन है कि पहले ईश्वर को जानो फिर मानो। आज ईश्वर को मानते तो बहुत हैं परन्तु जानते बिल्कुल नहीं हैं। मानना अंधविश्वास है और जानना परम विश्वास है। उन्होंने श्रीभगवत् गीता के अनेक भावपूर्ण प्रसंगों को उद्धृत करते हुए भक्तजनों का शास्त्र सम्मत मार्गदर्शन किया। शुभारम्भ भावभीने भजनों की प्रस्तुति देते हुए किया गया। मंचासीन ब्रह्म्ज्ञानी संगीतज्ञों द्वारा प्रभु प्रेम से ओत-प्रोत अनेक भजन संगत के समक्ष प्रस्तुत किए गए। भजनों की मिमांसा करते हुए मंच का संचालन साध्वी कुष्मिता भारती के द्वारा किया गया। साध्वी ने कहा कि आज संसार में अधिकतम रूप से परमात्मा को जाने बिना ही उनकी स्तुति, उनका गुणगान, उनका चारित्रिक बखान और उनकी महिमा गाई जा रही है जो कि तब तक अर्थहीन ही है जब तक कि उस एक परमात्मा को अपने अन्र्तघट में जान नहीं लिया जाता। कहा भी गया- जब देखा तब गावा, तो मन धीरज पावा। शास्त्रानुसार प्रत्येक मनुष्य के भीतर एक दिव्य दृष्टि विद्यमान है। इसका स्थान मस्तक पर स्थित दोनों नेत्रों के मध्य भृकुटि पर है। यह तृतीय नेत्र सर्वथा गुप्त है। यह समूचे शरीर की समस्त इंद्रियांे से सबसे ऊपर स्थित है और इसी नेत्र के द्वारा ईश्वर का प्रत्यक्ष दर्शन हुआ करता है। समस्त मायावी इंद्रियों से ऊपर विद्यमान होने और ईश्वर का स्थान होने के कारण ही अक्सर कहा भी जाता है- ऊपर वाला जाने……। यह ऊपर वाला इसी दिव्य नेत्र में स्थित परमात्मा है जो कि सबसे ऊपर है। जब कोई पूर्ण संत जीव क जीवन में आते हैं तो वे इस गुप्त नेत्र को उजागर कर परमात्मा का प्रत्यक्ष साक्षात्कार जीव के अंर्तघट में करवा दिया करते हैं। यहीं से ईश्वर का समग्र चिंतन प्रारम्भ हुआ करता है, यहीं से शाश्वत् भक्ति की शुरूआत हो जाया करती है। यहीं से ईश्वर का भजन, उनका चारित्रिक बखान और उनकी महिमा का गुणगान साकार स्वरूप में अभिवंदित हुआ करता है। गुरू ही वे परम दृष्टा हैं जो अपने शिष्य की दिव्य दृष्टि खोलकर उसे भी स्वयं के समान परम दृष्टा बना दिया करते हैं। जहां चिंतन है वहां चिंता का कोई काम नहीं, एैसा तभी हो पाता है जब चिंतामणि भगवान अपने भक्त के संरक्षक बनकर उसके योग तथा क्षेम स्वयं वहन करने लगते हैं।
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