Uttarakhand,(सुशील उपाध्याय):उत्तराखंड में कहीं 24 तो कहीं 48 घंटे के कर्फ्यू का ऐलान होने के बाद पहला ख्याल खुद को एक बंद घेरे में महसूस करने के रूप में आया। उत्तराखंड के चारों मैदानी जिलों के संदर्भ में देखें तो सरकार ने यह निर्णय देर से लिया है। काफी पहले ले लिया जाना चाहिए था। खैर, देर से ही सही, पर अब हालात सामान्य होने तक सप्ताह में दो दिन (शनिवार-रविवार) के कर्फ्यू को जारी रखा जाना चाहिए।
इसमें कोई संदेह नहीं की कर्फ्यू जैसा शब्द बहुत ही अलग तरह का डर, अकेलापन और बेचैनी पैदा करता है। हरिद्वार में मेरे घर के ठीक पीछे उदासीन अखाड़ा (आश्रम) के बाग में भी लगभग सन्नाटा छाया हुआ है। जैसे पक्षियों तक को एहसास हो कि आज कर्फ्यू है। इसी बाग में कुंभ के लिए लगाए गए टेंट अब खाली पड़े हैं। ज्यादातर साधु-संत अपने मूल ठिकानों को लौट गए हैं। अब यहां बड़ी गुम्फित उदासी दिखती है। वैसे, हरिद्वार में किसी भी बड़े पर्व-त्यौहार, खासतौर से कुंभ जैसे आयोजन के बाद गहरा सूनापन पसर जाता है और फिर यह अगले पर्व-त्यौहार पर ही टूटता है।
इस बार तो कोरोना के कारण कुंभ की स्थितियां भी अस्त-व्यस्त ही रही। इस कारण शहर में ऊर्जा का वह चरम घटित ही नहीं हुआ जो कि ऐसे अवसरों पर सहज रूप से महसूस किया जा सकता था। सामने की ओर हरिद्वार-दिल्ली हाईवे पर इक्का-दुक्का गाड़ियां आ-जा रही हैं। बीच-बीच में पुलिस की गाड़ी सायरन बजाती हुई गुजरती है और लोगों को घरों में रहने के लिए ताकीद करती है। इन्हीं दिनों की तुलना बीते साल से की जाए तो साफ पता लगता है कि बीते साल डर ज्यादा था और इस साल बेचैनी ज्यादा है।
इन दिनों मन-मष्तिष्क के भीतर विकल्पों और संकल्पों की एक सतत श्रृंखला चलती रहती है। सुबह से कई बार ख्याल आ चुका है कि अपना प्रेस कार्ड और कुंभ मीडिया कार्ड गले में टांग कर शहर में निकला जाए, लेकिन अगले ही पल यह ख्याल सामने आ जाता है कि क्या अपनी और दूसरों की जिंदगी से ज्यादा कीमती कोई चीज हो सकती है! आखिर मेरे जैसे तमाम लोगों के पास यह अधिकार कहां से आ गया कि हम किसी की जिंदगी दांव पर लगाएं। इस विचार के बाद घर के भीतर ही रहने की बाध्यता घुटन देने लगती है। नेल्सन मंडेला के बारे में सोचता हूँ, जिन्होंने जिंदगी के 27 साल 6×6 फ़ीट की कोठरी में गुजारे। या फिर म्यांमार की नेता आन सांग सूकी, जो कुछ वर्ष के अंतराल को छोड़ दें तो कई दशक से घर मे नजरबंद की गई हैं। बन्द दीवारों के पीछे कैसे कटती होगी जिन्दगी ?
अंततः घर में ही बैठकर उन कामों की लिस्टिंग करने लगता हूं जो अधूरे पड़े हुए हैं। ऐसी ही सूची बीते साल भी बनाई थी। उनमें से शायद ही कोई काम पूरा हो पाया है। अनुभव बताता है कि किसी काम के पूरा होने में समय और सुविधाओं की उपलब्धता की भूमिका बहुत थोड़ी होती है। जब करने की इच्छा न हो तो मन-मस्तिष्क अनगिन विकल्प प्रस्तुत कर देता है। हम अपनी सुविधा के अनुरूप उनमें से कोई एक चुन लेते हैं और फिर काम को टाल देते हैं। पर, फिलहाल अपनी अकर्मण्यता को लेकर क्षणिक-अपराधबोध बना हुआ है।
टीवी खोल कर देखता हूं तो कोई भी चैनल ऐसा नहीं है जिस पर कोरोना के भय को बढ़ाती हुई खबरें मौजूद ना हों। एक चैनल बता रहा है कि यह वायरस पानी के जरिए भी बहुत तेजी से फैलता है। रिपोर्टर बताता है कि कुंभ में जिन कोरोना संक्रमित लोगों ने गंगा स्नान किया, उन्होंने इस वायरस को फैलाने में बड़ी भूमिका निभाई। एक रिपोर्ट ‘आज तक’ चैनल पर आ रही है, जिसमें बताया जा रहा है कि कोरोना वायरस हवा के जरिए भी फैल रहा है। तो फिर कौन सा माध्यम बचता है ? शहरी जिंदगी में हवा और पानी किसी कार के भीतर चल रहे ए.सी. की तरह होते हैं। वहीं से हवा लेते हैं, वहीं घुमाकर वापस कर देते हैं। फिर, हम जैसे लोग क्या करें जो अपने घरों में गंगा के पानी की सप्लाई के भरोसे जिंदा है या उसी हवा में सांस ले रहे हैं जो वायरस उड़ा कर ला रही है, ले जा रही है।
चैनलों पर हर कोई विशेषज्ञ बना बैठा है। एक के बाद एक विरोधाभासी बातें प्रसारित हो रही हैं। कुछ देर बाद डर का एहसास बढ़ता हुआ दिखने लगता है। टीवी बंद कर देता हूं और फिर सोशल मीडिया पर निगाह डालता हूं। चिंता बढ़नी स्वाभाविक है, फेसबुक जैसे माध्यम पर हर तीसरी-चौथी पोस्ट में किसी के कोरोना पॉजिटिव हो जाने, किसी की स्थिति खराब होने और कुछ मामलों में मृत्यु हो जाने की सूचनाएं मिलती हैं। लगता है, जैसे सोशल मीडिया माध्यमों को भी कोरोना ने ग्रस लिया है। टीवी चैनलों पर आने वाली खबरें और सोशल मीडिया पर मौजूद निजी सूचनाओं को मिलाकर जो चित्र बन रहा है वह उदास और व्यथित करने से कहीं ज्यादा बड़ा और गहरा है।
कल ही मेरे मित्र डॉ. अजित सिंह, जो कि मनोवैज्ञानिक भी हैं, ने मौजूदा परिस्थितियों के मानसिक प्रभाव पर बात की। उनकी बातों से लगा कि इस वक्त बस उतनी देर के लिए ही हम कोरोना को भूल पा रहे हैं, जब किसी बेहद जरूरी काम में बिजी होते हैं। अन्यथा चौबीसों घंटे कोरोना का डर सबके सिर पर सवार है। डर की वजहें भी हैं, कहीं अस्पताल नहीं हैं, कहीं अस्पतालों में दवाएं, डॉक्टर नहीं है, वेंटीलेटर और ऑक्सीजन नहीं मिल रही है, लोग अस्पतालों के भीतर और बाहर, दोनों जगह पर मर रहे हैं। श्मशान घाटों पर लाइन लगी हुई है। ये सारी बातें इतनी जल्दी अपनी चपेट में ले लेती हैं कि इनसे बाहर निकलना और सहज रह पाना लगभग असंभव हो जाता है।
दूर किसी आश्रम में कथा होने की आवाज आ रही है। हाईटेक हो गए धर्म-व्यवसाय में भी अब ऑनलाइन कथाओं का दौर चल रहा है। मौके पर 4-6 भक्त होंगे और बाकी अपने सुविधाजनक स्थानों पर बैठे हुए कथा से जुड़े होंगे। कुंभ की अवधि में हरिद्वार शहर और उसके आसपास के इलाकों में जितने काम हुए हैं, उनसे पूरे शहर का चित्र ही बदल गया है। रात में शहर बेहद सुंदर लगता है, लेकिन क्या इस सुंदरता का एहसास स्थायी रूप से टिक पा रहा है? इसका जवाब ‘नहीं’ में है। हर सुंदर चीज बेहद एकाकी, उदास और खुद से कटी हुई महसूस हो रही है। ये भी कोरोना का एक पहलू है।
हरिद्वार में आधी रात के बाद से लेकर और सुबह सूरज निकलने तक गंगा की तरफ से यानी पूरब से हवा चलती है, जिसे स्थानीय भाषा में ‘डाडू’ कहते हैं। अप्रैल-मई के दिनों में आधी रात के बाद यह हवा बेहद सुखद अहसास देती है, लेकिन मन की स्थिति किसी भी सुखद अहसास को चुभन में बदल देती है। देर रात आवासीय सोसाइटी की छत पर टहलते हुए पहली बार इस हवा की चुभन को महसूस किया। असल में चुभन हवा में नहीं है, भीतर बैठे हुई बेचैनी, एकाकीपन और आश्रयहीनता के भाव से जुड़ी हुई है। किसी को नहीं पता कि यह वक्त कितना लंबा चलेगा, लेकिन वे तमाम लोग जो संवेदना के साथ चीजों को देखते हैं, वे इस सन्नाटे और सूनेपन से गहरे तक प्रभावित हैं और इसे साफ-साफ देख भी पा रहे हैं। अब, दूरस्थ कथा-स्थल से मंत्रों की आवाज आ रही है। जबकि, मेरे पड़ोस के घर में अधेड़ उम्र के पति-पत्नी आपस में उलझे हुए हैं। उनके लड़ने और बहस करने की आवाजें मंत्रों से भी ज्यादा स्पष्ट और ऊंची हैं। इस वक्त ऐसी आवाजें भी ऊर्जा के स्रोत-सी लगती हैं।
सुशील उपाध्याय
Her khabar sach ke sath
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