Haridwar,(सुशील उपाध्याय) नेपाल के पूर्व राजा ज्ञानेंद्र वीर विक्रम शाह इन दिनों हरिद्वार आए हुए हैं, कुंभ स्नान के लिए। मीडिया के एक बड़े हिस्से में उन्हें नेपाल का सम्राट, नेपाल नरेश, महाराजाधिराज और भी न जाने किन किन उपाधियों से विभूषित किया जा रहा है। यद्यपि इक्का-दुक्का मीडिया माध्यमों ने उन्हें नेपाल का पूर्व राजा ही लिखा है, लेकिन स्थानीय स्तर का मीडिया ऐसा अभिभूत है मानो कुंभ की धरती पर भगवान स्वयं आ गए हों।
यह स्थिति न केवल हास्यास्पद है, बल्कि चिंताजनक भी है। मीडिया का यह ‘राज-गीत’ नेपाल के उन करोड़ों लोगों का अपमान भी है, जिन्होंने दशकों के संघर्ष के बाद लोकतंत्र की स्थापना की है। एक लोकतांत्रिक देश के नागरिक होने के नाते क्या हमें नेपाल की पूर्व राजशाही के सम्मान में इतना झुक जाना चाहिए कि देखने वाले को भी शर्मिंदगी का अहसास होने लगे। कुछ लोगों ने तो उनके नाम से पहले ‘श्री 5 महाराजा’ (यानी 5 बार श्री, जैसे श्री 108) भी लिखा है। ऐसे व्यवहार के पीछे के मूल कारण क्या हो सकते हैं ? मीडिया का एक बड़ा हिस्सा उन्हें राजा साबित करने पर क्यों जुटा है ? इस व्यवहार से मीडिया या पूर्व राजा में से किसकी हैसियत बढ़ रही है ?
स्थानीय स्तर पर साधु-संतों ने ज्ञानेंद्र को जिस तरह का आदर-सत्कार दिया है, वह उनका व्यक्तिगत मामला हो सकता है, लेकिन यदि मीडिया का एक बड़ा हिस्सा ज्ञानेंद्र को अब भी राजा की तरह स्थापित करने की कोशिश करें तो यह चिंताजनक बात है। और परोक्ष तौर पर यह लोकतांत्रिक मूल्यों पर हमला भी है। सोशल मीडिया पर बहुत सारे पत्रकारों ने भी ज्ञानेंद्र को महाराजाधिराज के रूप में ही स्थापित करने की कोशिश की है। वैसे, उत्तराखंड में मीडिया द्वारा टिहरी की पुरानी राजशाही से जुड़े लोगों को अब भी महाराजा, महारानी और राजकुमार जैसी पदवी दी जाती रही है। उत्तराखंड में इक्का-दुक्का नाम ऐसे भी हैं, जिनका भले ही कोई रजवाड़ा ना रहा हो, लेकिन वे भी खुद को राजा के रूप में संबोधित करवाने को लालायित रहते हैं और मीडिया ऐसा करता भी है।
इसके मूल में देखें तो हमारा हजारों साल का वह प्रशिक्षण काम कर रहा है, जिसमें पुरानी पीढ़ियों को राजा-महाराजाओं के संरक्षण में रहने से न केवल खुशी मिलती थी, बल्कि एक खास तरह की आश्वस्ति भी होती थी। वस्तुतः हमारे लिए अब भी लोकतंत्र एक नई अवधारणा है। (वैशाली गणतंत्र को अपवाद मान लीजिए।) इसलिए हम अपने पीढ़ियों के अनुभव एवं प्रशिक्षण से आसानी से मुक्त नहीं हो पाते। वैसे भी, हमारे पौराणिक-ऐतिहासिक सन्दर्भ राजाओं और राजशाही के किस्सों से भरे हुए हैं इसलिए लोकतांत्रिक मूल्यों को आत्मसात करने में थोड़ा और समय लगना स्वाभाविक है।
यदि कोई आम आदमी ज्ञानेंद्र को राजा के रूप में स्वीकार कर रहा है तो उसे इसलिए अनदेखा किया जा सकता है क्योंकि संभव है कि उसकी समझ इतनी व्यापक ना हो जितनी कि मीडिया में काम कर रहे लोगों की है अथवा होनी चाहिए। पर, जब मीडिया के लोग तथ्यों की अनदेखी करके किसी अलग ही तथ्य को स्थापित करने की कोशिश करते हैं, तब यह क्यों नहीं माना जाना चाहिए कि वे सूचना देने, शिक्षित करने और जनमत बनाने के अपने मूल उद्देश्य से परे हट गए हैं।
इस मुद्दे पर मैंने ऐसी कुछ सोशल मीडिया पोस्टों और वेब पोर्टल की खबरों पर कमेंट किया तो संबंधित लोगों ने इसे सहजता से लेने की बजाए व्यक्तिगत हमले की तरह देखा। इसका अर्थ यह है की मीडिया का एक हिस्सा हमेशा यह मानकर चलता है कि उसने जो कुछ लिखा है या जो भी प्रस्तुत किया है, उससे इतर कोई सत्य नहीं है। इस पूरे प्रकरण में उत्तराखंड सरकार का रुख भी तथ्यों से परे रहा है। सरकार के सूचना विभाग द्वारा जारी विज्ञप्ति में भी ज्ञानेंद्र को नेपाल के सम्राट के रूप में ही संबोधित किया गया है। खैर, मेरे जैसे लोगों के लिए राजा-महाराजाओं की बजाय लोकतांत्रिक मूल्य ज्यादा कीमती हैं।
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