देहरादून: देश की आजादी की 75वीं वर्षगांठ के बीच देहरादून जिले के लोगों के लिए यह साल दोहरे ऐतिहासिक महत्व वाला है। बहुत कम लोग जानते होंगे कि देहरादून जिले को बने 150 साल पूरे हो गए हैं। वैसे, देहरादून का प्रशासनिक ढांचा 200 साल पुराना है, लेकिन विधिवत रूप से 1871 में इसे जिले का दर्जा मिला। सामाजिक कार्यकर्ता विजय भट्ट ने बताया कि खलंगा किले पर आक्रमण के बाद 30 नवंबर 1814 को देहरादून अंग्रेजों के अधीन आ गया था।
17 नवंबर 1815 में देहरादून को सहारनपुर जिले के अधिकार में दिया गया। मार्च 1816 में उत्तरी सहारनपुर के सहायक कलेक्टर मिस्टर काल्वर्ट को देहरादून का प्रभार सौंपा गया। तब देहरादून की अनुमानित जनसंख्या 17 हजार थी। उस समय पुलिस और फौजदारी के मामले उत्तरी सहारनपुर के मजिस्ट्रेट और दीवानी मुकदमे मेरठ की कोर्ट में सुने जाते थे।
1822 में एफजे शोर को संयुक्त मजिस्ट्रेट और रेवेन्यू सुपरिंटेंडेंट ऑफ दून बनाया गया। इस बीच जिला स्तर को लेकर संशय की स्थिति बनने पर 1842 में मसूरी सहित दून को सहारनपुर से जोड़ने का संकल्प जारी किया। एचजी वाल्टन के लिखे देहरादून गजेटियर के अनुसार, वर्ष 1871 में अधिनियम-21 में देहरादून को प्रांत के बाकी जिलों के बराबर का अधिकार मिला। इसके बाद देहरादून को अलग जिले के रूप में पहचान मिली।
देहरादून मजिस्ट्रेट और रेवेन्यू कलेक्टर सुपरिंटेंडेंट ऑफ दि दून कहलाता था। एफजे शोर के कार्यकाल में देहरादून में कई काम हुए। 1822 तक दून में सड़कें नहीं थीं, लेकिन शोर के छह साल के कार्यकाल में 39 मील लंबी सड़कें बनीं। 1829 में कैप्टन एफ यंग को यहां अधीक्षक बनाया गया। 1825 में देहरादून कुमाऊं कमिश्नरी में चला गया। बाद में देहरादून फिर मेरठ कमिश्नरी में आ गया। आजादी के बाद 1968 में देहरादून जिले को मेरठ से गढ़वाल मंडल में शामिल किया गया।
देहरादून जिला परिषद (अब जिला पंचायत) की स्थापना 1883 में हुई थी। तब यहां 18 सदस्य हुआ करते थे। यानी-दो पदेन अधिकारी, सरकार से चार नामित और 12 सदस्यों का निर्वाचन होता था। अधीक्षक पदेन अध्यक्ष होता था। उस वक्त परिषद का सालाना बजट 70 हजार रुपये के आसपास था। यह परिषद सड़क, अस्पताल और स्कूलों के रखरखाव का काम देखती थी।
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