window.dataLayer = window.dataLayer || []; function gtag(){dataLayer.push(arguments);} gtag('js', new Date()); gtag('config', 'UA-96526631-1'); बताओ संजय, आगे बताओ… | T-Bharat
September 22, 2024

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बताओ संजय, आगे बताओ…

-सुशील उपाध्याय

जिंदगी एक साथ इतनी तरह के रंग और दृश्य लेकर आती है कि उन सब को किसी एक फ्रेम में फिट कर पाना इंसानी कुव्वत से बाहर का मामला हो जाता है। यहां दुख का चरम है और उम्मीद की ऊर्जा भी ठाठे मारती है। मेरे घर के ठीक सामने जो सज्जन रहते हैं, उनका पूरा परिवार देवी मां को जागृत करने के लिए भजन-पूजा में जुटा है। न केवल खुद जुटा है, बल्कि अपने बहुत सारे रिश्तेदारों-परिचितों को भी बुलाया हुआ है।
मुश्किल से 200 वर्ग फीट के ड्राइंग रूम में 20-25 लोग बिना मास्क पहने देवी मां का जागरण कर रहे हैं। जागरण को लीड कर रहे सज्जन बीच-बीच में सद-उपदेश भी दे रहे हैं और जीवन को सार्थक बनाने के इंसटेंट उपाय बता रहे हैं। ऊर्जा, भावना, गायन, संगीत, हवि, पवित्र-धूम आदि, सबको मिलाकर माहौल भक्तिमय है। भजन थोड़ी देर के लिए रुक गए हैं। मकान मालिक ने, जो कि केंद्र सरकार के एक विभाग में मझले दर्जे के अफसर हैं, खाने वाले को फोन किया है कि खाने की थाली 20 की बजाय 25 भेजी जाएं। आर्डर नोट होने के बाद भजन पुनः निर्बाध हो गए हैं।
उनके घर में एक कुत्तिया है। (माफ कीजिएगा, उन्होंने इसका बहुत ही खूबसूरत नाम रखा हुआ है, सोफी। नस्ल लैब्राडोर है। उम्र साल भर है। बहुत ज्यादा भौंकती है। अभी ट्रेनिंग काल चल रहा है। अंग्रेजी भी सीख रही है।) जबसे भजन चल रहे हैं, इस स्वनामधारी कुतिया का भौंकना भी सतत जारी है। जैसे चेतावनी दे रही हो कि अपने घरों पर बैठकर ही भजन कर लेते तो ज्यादा अच्छा था। लेकिन कुतिया के संकेतों पर किसी ने ध्यान नहीं धरा। भजन-भोजन के बाद लोग देर रात विदा हुए हैं। अब, जिनको कुढ़ना है, कुढ़ते रहें।
घर के पीछे की तरफ खाली प्लॉट में एक बहुत पुराना पेड़ था। पुराना इसलिए कह रहा हूं कि इस पर जितने पक्षियों का बसेरा रहा है, वैसा बसेरा कम ही पेड़ों पर देखा है। यहां कोटर में तोते, पेड़ के सबसे ऊपर के हिस्से पर कौवे, पत्तों से ढके छिपे-हिस्सों में चिड़िया, उन्हीं के आसपास गिलहरियां मौजूद थीं। कोटर के ऊपर के हिस्सों में उल्लू-परिवार ने भी अपना ठिकाना बनाया हुआ था। बीते दिनों कोई पूर्व सूचना दिए बिना ही ये पेड़ गिर गया।
गिरे हुए पेड़ की जड़ साफ-साफ बता रही है कि मट्ठा डालने का काम किसी पराए आदमी ने नहीं किया है। चूंकि इस प्लॉट में इंसानों के रहने के लिए नए जमाने के भवन बनेंगे इसलिए पेड़ का गिर जाना ही उसकी अंतिम नियति थी। साल भर पहले भी इसको काटने की कोशिश हुई थी, लेकिन तब इसकी जिंदगी बच गई थी। पक्षियों के घर भी बच गए थे। अब ठूंठ तक नहीं बचा है।
घर के ठीक सामने मुख्य सड़क के कोने पर बिजली का एक पुराना खंभा लगा हुआ है। इस खंभे पर लोहे का एक बॉक्स है। शायद पहले इस बॉक्स में कोई उपकरण लगा होगा, लेकिन अब यह खाली है। वैसे, खाली कहना गलत है क्योंकि बीते कुछ महीनों के भीतर मैंने इस बॉक्स पर कब्जे की लड़ाई को बहुत निकटता से देखा है। पहले दो छोटी चिड़िया आई, अंडे दिए और फिर वे अपने बच्चों को लेकर उड़ गई। ये देखकर आश्चर्य हुआ कि चिड़िया द्वारा बनाए गए इस घोसले में गिलहरी के बच्चे भी पले और बड़े हुए। गिलहरी काफी दिन से इसकी ताक में थी।
इसी बीच चिड़ियों का एक और जोड़ा आ गया है, जिनकी चोंच का आधा हिस्सा नीला और आधा पीला है। आकार में गौरैया के मुकाबले थोड़ी-सी बड़ी हैं। रंग धूसर है। अच्छा गाती है। अब इन्होंने इस बॉक्स पर कब्जा कर लिया है। बॉक्स के अंदर की हलचल को देख कर लगता है कि अंदर अंडों से बच्चे निकल आए हैं। संघर्ष की बात इसलिए कह रहा हूं की गिलहरी अभी ऊपर तक आती है। अंदर रह रहे बच्चों और बाहर मौजूद चिड़िया के जोड़ों को डराने की कोशिश करती हैं। शायद वह फिर से इसे अपने लिए सुरक्षित करने की कोशिश में हैं, लेकिन चिड़िया हमलावर हैं। जब पेड़ गिरते हैं तो फिर लोहे के मामूली बक्से ही बचते हैं। इन्हें चाहे पिंजरा कह लीजिए या फिर कैदखाना!
सामने के घर में कुछ महीने पहले उनके दो साल के बहुत ही मासूम और प्यारे बच्चे का कैंसर से देहावसान हुआ है। कई महीने बाद भी वहां का सन्नाटा और उदासी नहीं टूट रही है। यह युवा जोड़े का पहला बच्चा था।
उस घर के ठीक बराबर में सरदार जी का परिवार रहता है। वे एंबुलेंस चलाते हैं। उनके पास अलग-अलग तरह की कई एंबुलेंस हैं। इनके बारे में इसलिए जानता हूं क्योंकि देर रात ये तमाम एंबुलेंस उनके घर के बाहर लाइन में खड़ी होती हैं। वे फोन पर किसी से बात कर रहे हैं। काफी खुश हैं और बता रहे हैं कि इस बार का सीजन भी उम्मीद से ज्यादा बेहतर जा रहा है। हालांकि एक महीना पहले उन्हें लग रहा था कि सीजन काफी कमजोर होने वाला है, लेकिन अब के हालात देखकर लग रहा है कि अगले पांच-छह महीने अच्छी स्थितियां बनी रहेंगी। ये भी तस्वीर का एक रंग है।
कितने विरोधाभासी रंगों के साथ एक पूरा चित्र बनता है। जिसमें एक बर्बाद हुआ पेड़ है, जिसमें एक आबाद हुआ बॉक्स है, जिसमें अनंत सन्नाटे का शिकार उस बच्चे का परिवार है, जिसमें देवी जागरण में जुटी भक्तों की भीड़ है, जिसमें एम्बुलेंस के कारोबारी का उल्लास है।
साथ ही, इन सब को देखने वाला एक व्यक्ति है, जो हर जगह खुद को फिट करने की कोशिश कर रहा है। मूल आधार कोरोना की नई लहर से पैदा हुआ वह डर है। वही डर हममें से हर किसी को बेचैन कर रहा है और मजबूर कर रहा है कि कोई सुरक्षित ठिकाना या कोना ढूंढ लें, जहां उदासी, अवसाद, खिन्नता, बेचैनी, घबराहट और अकेलेपन का एहसास ना हो। आज के हालात में यह अबूझ-तलाश किसी एक व्यक्ति की नहीं, बल्कि हमारा समय ही खुद को तलाश रहा है।
मौतों और बीमारों की खबरों से पटे हुए मीडिया माध्यमों ने हम सभी को महाभारत के विदुर, संजय और धृतराष्ट्र जैसे पात्रों में तब्दील कर दिया है, जो बुरा सुने जाने के लिए शापित हैं। सामने मौजूद कुरुक्षेत्र में सर्वश्रेष्ठ योद्धा और सबसे योग्यतम लोगों के शवों का ढेर बड़ा होता जा रहा है। दो दिन से बादल छाये हुए हैं, फिर भी हमारा समय रोशनी की उम्मीद में लड़ रही है। यही अंतिम आशा भी है।

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